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एकात्म ग्राम्य चिंतन

हनुमान सिंह राठौड़ शिक्षाविद् व सामाजिक अध्येता 

वर्तमान समय में जब किसी व्यक्ति को ‘गँवार’ कहते हैं तो वक्ता का तात्पर्य ग्राम-वासी नहीं, असभ्य, उज्जड़ होता है । यह वैसा ही है जैसे अंग्रेज भारतीयों (वास्तव में वे अपमानजनक अर्थ में ‘नेटिव’ शब्द प्रयोग करते थे) को ‘ब्लैक, हीदन्स एण्ड पेगन्स’ मानकर अपने रहने के स्थान ‘कॉलोनी’ (रोमन साम्राज्य में विजित क्षेत्र में बसायी गई सेवानिवृत सैनिकों की बस्ती जो दुर्ग-रक्षक की तरह कार्य करती थी।) को ‘सिविल लाइन्स’ (सभ्य लोगों की वीथि) कहते थे। प्रश्न उपस्थित होता है कि तब ‘है अपना हिन्दुस्तान कहाँ वह बसा हमारे गाँवों में’ इस उक्ति का अर्थ क्या है? विश्व की प्राचीनतम, प्रगत सभ्यताओं में से एक है भारत ! भारत जो विश्व गुरु रहा है, जिसकी संस्कृति का सतत प्रवाह तब से अनवरत है जब से इतिहास ने आँखें खोली हैं। अठारहवीं ईस्वी शताब्दी तक भारत विश्व की प्रथम क्रमांक की आर्थिक शक्तियों का अग्रेसर रहा है। क्या तथाकथित असभ्य पिछड़े गाँवों के बल पर यहाँ घी-दूध की नदियाँ बह सकती थी? क्या भारत सोने की चिड़िया कहला सकता था? भारत को फिर से वैभव सम्पन्न बनाना है तो सनातन संस्कृति के सुदृढ़ आधार पर सभ्यता के भग्नावेशों का जीर्णोद्धार करना होगा और इसके लिए – ‘क्या थे, क्या हैं और क्या होना है’ का पुनः विचार कर कर्म-प्रवण होना पड़ेगा। भारत आदिकाल से ही ग्राम-गणराज्यों के देश के रूप में जाना जाता रहा है। ये ग्राम-गणराज्य स्वयं में पूर्ण स्वायत्त एवं स्वावलम्बी थे। वैदिक साहित्य से लेकर कौटिल्य के अर्थशास्त्र तक में ग्राम से लेकर जनपद तक सुव्यवस्थित सभा-समितियों एवं उनकी कार्यप्रणाली का वर्णन मिलता है। यहाँ तक कि ग्राम में रहने वाले कुटुम्बों (कुलों) की भी ग्राम सभाएँ होती थी। ये लोक-संस्थाएँ ही शासन संचालन में सहकारी व नियंता होती थीं। ग्राम संगठन का प्रतिनिधि ‘ग्रामणी’ कहलाता था- इसी से ग्राम तथा ग्रामीण शब्द बने हैं। मनु ने इसे ‘ग्रामपति’ कहा है। रामायण में तीन प्रकार के ग्रामों का उल्लेख आता है। कृषि ग्राम, गोकुल ग्राम तथा महाग्राम । जहाँ एक ही कुल के लोग अपने खेतों में ही निवास करते थे वह कृषि ग्राम कहलाता था। रूस में बनाये गए कम्यून या भारत में वर्तमान में जिन्हें ‘ढाणी’ कहते हैं, या पाश्चात्य शब्दावली में ‘फार्म हाउस’ का यह संयुक्त रूप था। पशुपालकों के ग्राम घोष या गोकुल ग्राम कहलाते थे। ये पुर या नगर के आस-पास होते थे। महाग्राम आज के कस्बे जैसे होते थे और ये सभी प्रकार की शैक्षिक, आर्थिक, सामाजिक गतिविधियों के प्रमुख केन्द्र होते थे। कौटिल्य ने ग्राम-रचना के सम्बन्ध में विस्तार से विचार प्रकट किये हैं। राजा को निर्देशित किया गया है कि अपनी आवश्यकता व कौशल को ध्यान में रखकर दूसरे देशों से भी लाकर लोगों को बसाना चाहिए। ग्राम सौ से पाँच सौ घरों के हों तथा दो गाँवों के मध्य एक कोस (तीन किलोमीटर) से अधिक दूरी न हो । अर्थात् ग्रामों का एक सुगम पहुँच वाला ‘ग्राम-संकुल’ (मण्डल) बनना चाहिए जो आवश्यकताओं में एक-दूसरे के पूरक हों। आवश्यकता होने पर तुरंत एक से दूसरे ग्राम में सहायता पहुँचायी जा सके। ग्रामों की सीमा निर्धारण का भी विचार किया गया। प्राकृतिक सीमाएँ जैसे नदी, पर्वत उपलब्ध हों तो ठीक अन्यथा तालाब, खाई तथा बेर, जामुन, वट आदि वृक्षों की कतारें बनाकर सीमांकन किया जाता था। इस प्रकार प्रत्येक ग्राम का चरागाह तथा ग्राम्य-वन तैयार हो जाता था। इन वनों में व्याध, शबर, पुलिन्द, चाण्डाल आदि वन्यजातियों के बसाने की व्यवस्था थी जो ग्राम-सुरक्षा तथा गुप्तचर व्यवस्था के दायित्व का निर्वहन करते थे। वन संरक्षण तथा वन्य खाद्य श्रृंखला नियंत्रण भी इनके जिम्मे था। वन-उपज पर मुख्य अधिकार इन्हीं का रहता था। सिंचित कृषि के लिए बाँध, नहर, जलाशय निर्माण करवाना राजा का कर्त्तव्य था। यदि ग्राम स्वयं यह व्यवस्था करना चाहे तो राजा उन्हें आवश्यक सहायता उपलब्ध करवाते थे। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्राचीन काल में भारत की सभी गतिविधियों का केन्द्र ग्राम था। इसकी समद्धि से आकर्षित होकर ही विदेशी आक्रमणकारी यहाँ आए। भारत से वाणिज्य -व्यापार के लिए समस्त विश्व लालायित रहता था। जब अरब की आँधी से इस्लामी साम्राज्य का विस्तार हुआ और यूरोप के लिए भारत आने के स्थल मार्ग बंद हुए तो यहाँ आने के समुद्री मार्ग खोजने की यूरोप में होड़ लग गई। जिन मसालों की गंध उन्हें खींचकर यहाँ लाई, जिस ढाका की मलमल से तन ढकने को वे उत्सुक रहते तथा एक अंगूठी से पूरे थान को निकलते देख स्तम्भित होते थे, जिसके इस्पात की धार-फौलाद की खनक दुश्मनों का दिल दहलाने के लिए दी जाने वाली चुनौती के वाक्यांशों की तपन थी, जिसके हीरों की चमक उन्हें चमत्कृत करती थी- उन सब के उत्पादन के केन्द्र भारत के ग्राम थे। यहाँ कि वाणिज्य वस्तुएँ अत्यंत उच्च कोटि की थीं, अर्थात् यहाँ की कुशलकर्मियों की निपुणता भी श्रेष्ठ थी और यूरोप में उसकी तुलना में कुछ नहीं था -यही उनके भारत के प्रति आकर्षण का एकमात्र कारण था। प्रश्न होता है कि भारत के ये कुशल उत्पादक, निपुण कारीगर, प्रगत उद्यमी उन दिनों कहाँ निवास करते थे? विदेशी व्यापार-विनिमय से जो सम्पदा आती थी वह वहाँ पहुँचती थी? ये केन्द्र थे ग्राम । क्योंकि भारत की आर्थिक उत्पादकता ग्राम केन्द्रित थी अतः ग्राम समृद्धि के केन्द्र थे। यदि ग्राम आर्थिक उत्पादन एवं गतिविधियों के केन्द्र थे तो क्या भारत की यह क्षमता ग्रामों में योग्य शिक्षा, कौशल प्रशिक्षण, तकनीकी ज्ञान व शोध की सुविधा के बिना संभव थी? क्या यह सोचना संभव है कि उस समय ग्राम आज की तरह विपन्न, पिछड़े रहे होंगे? स्पष्ट ही प्राचीन इतिहास एवं भारत के वैभव कालीन स्वर्ण युग के अध्येता का उत्तर नकार में ही आयेगा। फिर इस रमणीय अक्षय ग्राम-वट को क्षति ग्रस्त किसने किया? इसकी जड़ों में पिघला हुआ सीसा किसने उंडेला? अंग्रेजों के आने से पूर्व भी भारत पर कई विदेशी आक्रमण हुए। यूनानी, शक, हूण, कुषाण तो यहीं के होकर विलीन हो गए। कवि गुरु के भारत-देह में विलीन हो गए। मुस्लिम आक्रमणकारी विलीन तो नहीं हुए, पर्याप्त मात्रा में प्रभावित होकर बदले भी, पर अपना अलग अस्तित्व आग्रहपूर्वक बनाये रखा। उनका प्रमुख उद्देश्य सत्ता स्थापना, लूट तथा मजहबी विस्तार था अतः भीषण अत्याचार हुए किंतु वे ग्राम व्यवस्था को बहुत अधिक क्षति नहीं पहुँचा सके क्योंकि मतांतरित नवमुसलमान उसी प्राचीन ग्राम-रचना का ही हिस्सा थे। उनके व्यवसायों में भी अंतर नहीं आया। आज भी कर्म आधारित जातियाँ हिन्दू व मुसलमानों में समान रूप से मिलती हैं। जब तक तबलीग जमात ग्रामों में नहीं पहुँची तब तक 

सामाजिक पर्व-उत्सव, रीति-रिवाज,, भूषा-भाषा, भोजन सब समान था। इस प्रकार मुस्लिम शासन में भी ग्राम की आर्थिक रचना पूर्ण रूप से और सामाजिक संरचना अधिकतर अप्रभावित रूप से बनी रही। गाँवों में किसानों के अतिरिक्त बढ़ई, लोहार, कुम्हार, जुलाहा, मोची, धोबी, तेली, नाई आदि व्यवसायी कामगार कृषकों की आवश्यकता पूर्ण करते थे और बदले में कृषि-उत्पाद प्राप्त करते थे। अतिरिक्त उत्पादन नगरों में विक्रय हेतु जाता था। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ग्रामों में कृषि और उद्योग का विशिष्टिकरण नहीं था अतः श्रम-विभाजन की स्पष्ट सीमा रेखा नहीं थी। मुख्यतः कृषि केन्द्रित होने पर भी परिवार खाली समय में घर पर सूत कातने, सिलाई आदि कार्य करते थे। आज भी अनेक ग्रामीण घरों में चरखा, घट्टी व सिलाई मशीन मिल जाएगी, पश्चिमी राजस्थान में चरवाहों को ऊँट, बकरी, भेड़ के बालों से कताई कर धागा बनाते हुए देखा जा सकता है। इस प्रकार ग्रामीण-कारीगरों को गाँव से ही अपने शिल्प के लिए आवश्यक कच्चे माल जैसे, मिट्टी, लकड़ी, सूत, चमड़ा, लौहे के औजार आदि का प्रबंध हो जाता था। इसी कारण मुगलकाल तक सतत आक्रमणों की श्रृंखला के बाद भी ग्रामों की कृषि व उद्योग व्यवस्था सामान्य किन्तु स्थायी और टिकाऊ बनी रही। बाहर की दुनिया से लगभग स्वतंत्र, अलिप्त, सार्थक, आत्मनिर्भर ग्राम सदियों तक स्थिर , अचल, परम्परागत सामाजिक ढाँचे के अविजेय दुर्ग बने रहे। इस दुर्ग में अंग्रेजों के आगमन के पश्चात् सैंध लगी। 

अंग्रेजों के आगमन से पूर्व व्यवसाय सामान्यतया वंशानुगत थे। व्यक्ति-परिवार-जाति-ग्रामः ये सब पंचायत के अधीन थे। यह ग्राम स्वशासन पद्धति यूरोप के लिए अपरिचित थी तथा इससे राजस्व प्राप्ति भी नहीं हो रही थी अत: उन्होंने स्वशासन पर आधारित भारतीय ग्राम-गणराज्य व्यवस्था को समाप्त करने का कुचक्र रचा। इसका प्रारम्भ हुआ 1687 के मद्रास (चेन्नै) नगर निगम अधिनियम के क्रियान्वयन से। कल्याणकारी राज्य का तात्पर्य यह लिया गया कि समाज-कल्याण के समस्त कार्य सरकार ही करेगी। इंग्लैण्ड में जिस प्रकार जन्म से लेकर मृत्य तक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में राज्य का हस्तक्षेप रहता था वैसा ही यहाँ करने का प्रयत्न प्रारम्भ हो गया। भारत की परम्परा तो सभी क्षेत्रों में समाज के स्व-स्फूर्त सहभाग की थी क्योंकि समाज के कार्यों को सम्पादित करने का दायित्व पूर्णतया राज्य को सौंपने पर समाज परावलम्बी, राज्य के अनुदान पर पलने वाला, अकर्मण्य बनता है तथा राज्य इन कार्यों को करने के लिए आवश्यक वित्तीय संसाधन जुटाने के लिए करों में वृद्धि करने के लिए बाध्य होता है। करों का बोझ समाज में आक्रोश, विद्रोह का बीजारोपण करता है तथा कर-चोरी को प्रोत्साहित करता है। वर्तमान समय में भी इसके उदाहरण मिलते हैं कि कर-वंचना के लिए प्रपंच करने वाले लोग समाज-कार्य पर पर्याप्त व्यय करते हैं। भारतीय मानस सामान्यतया कर चुकाने की अपेक्षा दान देने में अधिक उदार होता है, इसीलिए प्राचीन साहित्य में कर लगाने की उपमा मधुमक्खी से दी है जो प्रत्येक पुष्प से थोड़ा-थोड़ा मकरंद लेकर मधु बनाती है तथा बदले में उनके परागण क्रिया को सम्पन्न करती है। अंग्रेजों ने भारत की ग्रामाधारित समाज रचना को भारत की समृद्धि व सुरक्षा तथा स्वाभिमान का कारण जानकर अपने राज्य को दीर्घकालिक, स्थायी तथा अक्षुण्ण बनाने के लिए इस स्वावलम्बी ग्राम-तंत्र को समाप्त करने की योजना बनाई। धीरे-धीरे उन्होंने समाज की शक्तियाँ राज्य द्वारा हस्तगत करना प्रारम्भ किया। परिणामतः ब्रिटिश राज्य एकाधिकारी, शक्ति केन्द्रित बनता गया और भारतीय ग्राम कमजोर होते गए। कुछ उदाहरणों से बात ध्यान में आएगी। प्राचीन ग्राम एक परिवार था और भूमि सामूहिक सम्पत्ति थी तथा ग्राम के समस्त कृषकों के लगान का सामूहिक भुगतान ग्राम पंचायत किया करती थी। अंग्रेजों ने भूमि ग्राम पंचायत की न मानकर व्यक्तिशः कृषक की भूमि माना और इस प्रकार ग्राम का सामूहिक लगान न लेकर व्यक्तिशः लेना प्रारम्भ किया। इससे ग्राम कृषक समाज एक इकाई नहीं रहा जिससे परस्पर सहकार से जिसकी उपज कम होती उसकी पूर्ति अन्यों द्वारा किया जाना कम या समाप्त हो गया। प्राचीन काल में कर कृषक की कुल उपज पर लगाया जाता था। भारतीय कृषि मानसून का जुआ है अत: उपज कम हुई तो कर स्वतः कम हो जाता था। अंग्रेजों ने भारत में कुल उपज के स्थान पर कुल जोत पर कर लगाया जो आज भी प्रचलित है। इससे कृषकों पर दबाव आ गया। यदि प्राकृतिक प्रकोप से फसल नष्ट हो गई तो भी उसके पास जितनी भूमि है उसके अनुपात में कर देना ही पड़ेगा। इसके अतिरिक्त ग्राम की भूमि किसी जमींदार को वार्षिक कर-संदाय के बदले दी जाने लगी । इस प्रकार जमींदार अपना देय कर अंग्रेजों को देने के लिए बाध्य था और इसलिए लगान वसूली के लिए वह कृषकों का उत्पीड़न भी करने को विवश हो गया। अंग्रेज की तुलना में जमींदार (ठाकुर) कृषकों की दृष्टि में ‘विलन’ बन गया जो भारतीय सिनेमा में आज भी जीवित है। इस प्रकार कृषक एक दुष्चक्र में फँस गया लगान चुकाने के लिए भूमि बंधक रखनी पड़ने लगी, कृषक अपनी ही भूमि पर बंधुआ मजदूर बन गया, ग्रामों में नए पूँजी केन्द्र बनने लगे जो कृषक समाज के शोषक बिचौलिये बन गए तथा ग्रामों का सामूहिकता का भाव क्रमशः समाप्त होने लगा। सदियों से चली आ रही जल-संरक्षण, वन-संरक्षण, वन्यजीव संरक्षण, जलाशय, मार्ग, उद्यान आदि तथा सार्वजनिक उपयोग के निर्माण आदि रुक से गए। वन, जल-स्रोत, बाँध सब सरकार के हो गए- शेष समाज इनके स्वामित्व और उपभोग से वंचित हो गया और परिणामतः उसका लगाव इनसे हट गया और प्राकृतिक असंतुलन बहुत ही तीव्र गति से दिखायी देने लगा। अंग्रेजों ने भारतीय समाज के विदेशों में निर्यात पर करों में अत्यधिक वृद्धि कर यहाँ के उद्योगों को समाप्त प्राय कर दिया जिसका सर्वाधिक प्रभाव कुटीर उद्योगों पर पड़ा । यहाँ का कच्चा माल निर्यात होकर निर्मित माल यहाँ के बाजारों को पाटने लगा। यूरोप में औद्योगिक क्रांति हमारे रक्त-वित्त से हो रही थी और हमारे उद्योग वाणिज्य अधोगति को प्राप्त हो रहे थे। अब अंग्रेजों ने विश्व व्यापार में प्रथम पंक्ति के देश भारत को अविकसित घोषित ही नहीं किया, बना भी दिया। कृषि आधारित उद्योग प्रधान देश को मात्र कृषकों का देश बताना शुरू किया। ग्रामोद्योग समाप्त होने के कारण बेरोजगार लोग खेतों में ही नियोजित हुए अतः कृषि पर अत्यधिक भार पड़ने के कारण कृषि अनार्थिक हो गई और कृषि व्यवस्था चरमरा गई। भारत ने अपने लम्बे इतिहास में बहुत से साम्राज्य देखे, परन्तु गुणात्मक दृष्टि से यदि तुलना करें तो अंग्रेजी राज अत्यन्त कुटिल, शोषक तो था ही, साथ ही वह भावात्मक, सांस्कृतिक, शैक्षिक व समाज-संगठन जैसे क्षेत्रों को भी आघात पहुँचाने वाला सिद्ध हुआ। स्वतंत्रता के बाद केवल अंग्रेज यहाँ से हट गए लेकिन उनका जो शोषक प्रशासनिक ढाँचा, उसकी मानसिकता तथा कार्यप्रणाली वैसी ही रह गई। उन दिनों छीनी गई ग्रामों की स्वायत्तता आज भी नहीं लौटी है। ‘ग्राम-पंचायत राज’ की संकल्पना भी राजनीतिक दाँव-पेचों तथा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई है। गाँधी जी ने ‘ग्राम-स्वराज्य’ की स्थापना की आवश्यकता प्रतिपादित करते समय कहा था  –

“मैं कहना चाहूँगा कि यदि गाँव नष्ट हो गए तो भारत भी नष्ट हो जाएगा। भारत-भारत नहीं रहेगा। उसके अस्तित्व का उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा। गाँव का पुनरूत्थान तभी संभव है जब वह शोषण का शिकार न बने। … हमें ग्रामों को स्वयंपूर्ण, सक्षम, आत्मनिर्भरता के मार्ग पर ले जाना होगा।” 

अभी तक के ऐतिहासिक विवेचन के आधार पर यदि हम ‘समग्र एकात्म ग्राम विकास’ संबंधी कार्य योजना पर विचार करें तो प्रथम आवश्यकता गुलामी की मानसिकता से मुक्ति पाकर स्वात्म बोध, स्वगौरव का जागरण करना आवश्यक है। हम कर सकते हैं’ का संकल्प आवश्यक है। युगानुकूल ग्राम-पुनर्रचना के लिए हमें अपने सनातन धर्म से चार सूत्र मिल सकते हैं – 1. ग्राम में व्यक्तिगत अधिकारों की अपेक्षा ग्राम के प्रति अपने कर्तव्य बोध का जागरण। 2. ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ मंत्र के आधार पर सर्व-सुमंगल की सहकारी भावना का विकास। प्रत्येक कार्य ग्राम का कार्य है और इसके लिए सामंजस्यपूर्ण सहयोग के लिए सभी अपने जिम्मे कार्य का कर्त्तव्य भाव से निर्वहन करें। 3. प्रकृति के शोषण की मनोवृत्ति से परावृत कर दोहन की मानसिकता का निर्माण। इसके लिए प्रकृति के प्रति माता मानकर पूजा का भाव पुनः विकसित करना। 

  1. संयमित उपभोग और भोग में मर्यादा पालन का अभ्यास ताकि समाज हित में देने की वृत्ति का विकास हो । वेद का कथन है- ‘शत हस्त समाहर 

योगी बनकर सैंकड़ों हाथों से उपार्जन करें और समाज हित में हजार हाथों वाला बनकर उसका विसर्जन कर दें। ग्राम-विकास का तात्पर्य केवल क्षतिपूर्ति या दोष निवारण तथा आर्थिक उपलब्धियाँ प्राप्त करना नहीं है, समाज को ऐसा स्वरूप देना है कि वह अपने जीवनोद्देश्य की प्राप्ति की साधना कर सके। यह कार्य बाह्य प्रक्रिया निर्देशित नहीं हो सकता। बाहय व्यक्ति या संगठन तो उत्प्रेरक का कार्य  सम्पूर्ण प्रक्रिया भले स्वचालित न हो पर क्रमश: इसे स्व-निर्देशित तथा स्वावलम्बी होना चाहिए। इसे ‘उर्वारुकमिव’ (खरबूजे की तरह) अन्यों के परिपाक के लिए अनुकरणीय उदाहरण भी बनना चाहिए। ग्राम-विकास-संकुल’ की अवधारणा इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए है। समग्र-विकास में रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा सबको सुलभ हो, ऐसी कल्पना रहती है। किन्तु प्रश्न है कि इनकी प्राप्ति साध्य करने हेतु साधनों का विवेक करना या नहीं? रोटी, कपड़ा, मकान जुटाने के लिए किसी भी माध्यम से धन कमाना या अर्थ और काम को धर्म की लक्ष्मण रेखा से आबद्ध करना? अत: हम केवल समग्र विकास की बात नहीं करते, हम ‘एकात्म समग्र विकास की बात करते हैं। हमें ग्राम विकास विधायी धर्म का संरक्षण करते हुए करना है। ग्राम में सुव्यवस्थित, संस्कारक्षम पूजा/ उपासना स्थल हो। संस्कारक्षम ग्राम हो अर्थात् व्यसन, कुरीतियों, विवादों से मुक्त सामाजिक समरसता का आदर्श उदाहरण बने । अथर्ववेद का कथन है — सं वो मनांसि सं व्रता समाकूतिर्नमामसि। अमी ये विव्रता स्थन तान् वः सं नमयामसि ।। (3-8-5) 

“(हे मनुष्यों) हम आपके विचारों, कर्मों तथा संकल्पों को एक भाव से संयुक्त करते हैं। पहले आप जो विपरीत कर्म करते थे, उन सबको हम श्रेष्ठ विचारों के माध्यम से अनुकूल करते हैं।” । अर्थात् ग्राम के सकारात्मक विचार वाले कार्य प्रारम्भ करेंगे, विपरीत कर्म करने वालों को अपने श्रेष्ठ आचरण-व्यवहार द्वारा अनुकूल करेंगे किन्तु जो दुष्ट प्रवृत्ति के विघ्न-संतोषी लोग सुधरने को तैयार नहीं हैं उनके नियंत्रण-निष्कासन का बल भी उत्पन्न करेंगे—

यो ग्रामदेशसङ्घानां कृत्वा सत्येन संविदम्। विसंवदेन्नरो लोभात्तं राष्ट्राद्विप्रवासयेत् ।। 

(मनु.8-219) 

“जो व्यक्ति ग्राम, देश या समुदाय से सत्य वचन पूर्वक प्रतिज्ञा करके फिर लोभवश उसे भंग कर दे तो राजा उसे राष्ट्र से बाहर निकाल दे।” ग्राम में संचालित विद्यालय की सुव्यवस्था में सहयोग तथा संस्कार केन्द्रों का निर्माण होना चाहिए। सद्साहित्य तथा विविध ज्ञानोपयोगी पुस्तकों व पत्र-पत्रिकाओं से युक्त सार्वजनिक पुस्तकालय व वाचनालय की व्यवस्था हो । ग्राम-साक्षर हो तथा अभिभावक शिक्षा के प्रति जागरूक हों ताकि विद्यालय समाज का विद्यालय बन सके। समस्त शासकीय ग्राम-पूरक योजनाओं, ग्राम पंचायत के कार्य व अधिकार के शिक्षण की व्यवस्था होनी 

चाहिए। ग्राम के सार्वजनिक सूचना पट्ट पर सुविचार, समाचार, कार्यक्रम सूचना आदि प्रसारित करने की व्यवस्था आवश्यक है। ग्राम-आरोग्य के लिए ग्राम स्वच्छता, जल निकास, कचरा-संग्रहण व निस्तारण व्यवस्था, घरों में या सामुदायिक शौचालय व्यवस्था, क्रीडा व्यवस्था, व्यायामशाला, योग केन्द्र, चिकित्सा केन्द्र, औषधीय पौधा रोपण तथा ग्राम वन का रोपण-रक्षण-पोषण । ग्राम को प्लास्टिक मुक्त बनाना, प्राथमिक चिकित्सा प्रशिक्षण आदि की व्यवस्था करना। आरोग्य के लिए ग्राम को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए वृक्षारोपण, सौर उर्जा, गोबर गैस का उपयोग, जैविक खेती को प्रोत्साहन, खेतों को रसायन मुक्त करने का अभियान। जल-संधारण की घरों एवं खेतों में व्यवस्था। ग्राम स्वावलम्बन के लिए कृषि आधारित व ग्राम्य कुटीर उद्योग, लघु उद्योग हेतु कौशल प्रशिक्षण । बैल आधारित आधुनिक कृषि यंत्रों के विकास से कृषि कार्य सुगम करना। गाँव को कर्जमुक्त बनाना तथा आर्थिक सहायता हेतु सहकारी ऋण व्यवस्था करना। ग्राम में उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करते हुए उद्योगों का विकास। ग्राम सुविधा सम्पन्न होना चाहिए। दूरसंचार, डाकघर, बैंक, चिकित्सालय, सहकारी केन्द्र, यातायात साधन, शुद्ध पेयजल, चरागाह, विद्यालय, उपासनागृह, श्मशान आदि समस्त सुविधाएँ गाँव में उपलब्ध होनी चाहिए ताकि हर कार्य के लिए शहरों में नहीं जाना पड़े। ग्राम का प्रवेश द्वारा मार्ग-सूचक पट्ट, सद्वाक्य युक्त फलक आदि की व्यवस्था। उपरोक्त करणीय कार्यों के क्रमशः क्रियान्वयन से समग्र ग्राम-विकास-संकल्पना को साकार किया जा सकता है। इसके कारण ग्राम एक कुटुम्ब संकल्पना को साकार करने का कार्य ग्राम के प्रत्येक परिवार में प्रारम्भ होना चाहिए। इसे कुटुम्ब प्रबोधन कहते हैं। जो हम ग्राम में देखना चाहते हैं उसकी प्रयोग व आचरण भूमि घर को बनाना पड़ेगा।